
अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग
श्लोक 1
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥१॥
भावार्थ:
धृतराष्ट्र बोले—हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
इस श्लोक में धृतराष्ट्र एक राजा और पिता के रूप में अपने मन की चिंता, संशय, और आशंका को प्रकट कर रहे हैं। वे जानते हैं कि यह युद्ध केवल शक्ति का नहीं, धर्म और अधर्म के बीच का संग्राम है। कुरुक्षेत्र को “धर्मक्षेत्र” कहकर वे यह भी मानते हैं कि यह भूमि धर्म के पक्ष में है — और यही बात उन्हें असहज कर रही है, क्योंकि उनके पुत्र अधर्म की ओर झुके हुए हैं।
उनका प्रश्न संजय से यह नहीं है कि “क्या हो रहा है”, बल्कि अंदरूनी डर और मन की उलझन का प्रतीक है —
“क्या धर्मभूमि में, धर्म के पक्ष में खड़े पाण्डव, मेरे पुत्रों पर हावी हो जाएंगे?”
“क्या यह भूमि मेरे पुत्रों को बदल देगी या वे अपने अहंकार में अड़े रहेंगे?”
यह श्लोक केवल युद्ध का आरंभ नहीं बताता, बल्कि यह दिखाता है कि मनुष्य कैसे मोह, स्वार्थ, और अज्ञान में फंसा होता है।
धृतराष्ट्र केवल एक पात्र नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं जो धर्म को जानता तो है, पर अपने मोहवश उससे मुँह मोड़ता है।






