
अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग
श्लोक 2
संजय उवाच
दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥२॥
यह दृश्य युद्ध की शुरुआत से ठीक पहले का है।
धृतराष्ट्र के दिव्य दृष्टि संपन्न मंत्री संजय युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाते हैं। जैसे ही कौरव सेना का नेता दुर्योधन पाण्डवों की सेना को सुव्यवस्थित (रणनीतिक रूप से सजाया हुआ) देखता है, उसकी आत्मविश्वास की परतों में हलचल शुरू हो जाती है।
वह सेना को देखकर सीधे अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाता है — जिससे यह स्पष्ट होता है कि वह भीतर से आश्वस्त नहीं है। एक राजा होकर भी, वह दूसरों की शरण लेता है — यह मानसिक द्वंद्व और भय का संकेत है।
- “दृष्ट्वा” (देखकर) — यह केवल नेत्रों से देखने का नहीं, भीतर की एक अनुभूति का संकेत है।
- “पाण्डवानीकं व्यूढम्” — अर्थात् पाण्डवों की सेना युद्ध के लिए एक प्रभावशाली और सुव्यवस्थित ढंग से खड़ी है। इसका मतलब यह नहीं कि वह केवल सैनिकों से भरी थी, बल्कि वह नीतियों और नैतिकता से भी सुसज्जित थी।
- “राजा वचनम् अब्रवीत्” — यहाँ “राजा” दुर्योधन स्वयं को कहता है, लेकिन उस वक्त उसके मन में जो डर है, वह उसे एक साधारण मानव जैसा बना देता है।
आंतरिक संकेत और मनोवैज्ञानिक पक्ष
इस श्लोक में दुर्योधन की असुरक्षा, भय, और मनोवैज्ञानिक अस्थिरता छिपी है। वह जानता है कि पाण्डव धर्म के साथ खड़े हैं, और कुरुक्षेत्र “धर्मक्षेत्र” है। से डर है कि कहीं ये सारी शक्तियाँ मिलकर उसकी पराजय का कारण न बन जाएँ। पर वह सीधे अपने डर को स्वीकार नहीं करता — बल्कि उसे “रणनीतिक चर्चा” का रूप देकर गुरु के पास जाता है।
संदेश हमारे लिए:
- यह श्लोक बताता है कि जब हम अन्याय और अधर्म के पथ पर होते हैं, तो सबसे पहले हमारे भीतर ही डर उत्पन्न होता है।
- जो व्यक्ति आत्मविश्वासी होता है, वह युद्ध शुरू होने से पहले डरता नहीं — लेकिन दुर्योधन का डर उसके कार्यों और शब्दों में झलकता है।
- यह श्लोक हमें चेतावनी देता है कि जब हमारा मार्ग गलत होता है, तो बाहर की ताकतें भले मजबूत हों, पर अंदर की कमजोरी हमें पहले तोड़ती है।






