Press ESC to close

VedicPrayersVedicPrayers Ancient Vedic Mantras and Rituals

Shrimad Bhagavad Gita Chapter -1 Shalok – 30 | श्रीमद् भगवदगीता अध्याय एक – श्लोक तीस | PDF

  • जुलाई 23, 2025

अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग

श्लोक 30

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थितुं भ्रमतीवच मे मनः ॥३०॥

(अर्जुन कहते हैं:)
“मेरे हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है, त्वचा जलती सी प्रतीत हो रही है, मैं खड़ा नहीं रह पा रहा हूँ, और मेरा मन भ्रमित हो रहा है।”

गूढ़ व्याख्या / विस्तार से समझिए:

इस श्लोक में अर्जुन अपने शारीरिक और मानसिक तनाव को व्यक्त करते हैं। युद्ध के मैदान में जब वह अपने सगे-संबंधियों, गुरुजनों, और मित्रों को अपने सामने खड़ा देखते हैं, तो उनका साहस डगमगाने लगता है।

  • “गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्” – अर्जुन का महान धनुष गाण्डीव उनके हाथ से छूट रहा है। यह उनके आत्मविश्वास के टूटने और युद्ध-भावना के लोप का संकेत है।
  • “त्वक् चैव परिदह्यते” – उनकी त्वचा जल रही है। यह मानसिक तनाव का शारीरिक प्रभाव है।
  • “न च शक्नोम्यवस्थितुं” – वह खड़े रहने में भी असमर्थ हैं, यानी उनका शरीर अब उनका साथ नहीं दे रहा।
  • “भ्रमतीव च मे मनः” – उनका मन चकरा रहा है, वह मानसिक रूप से अत्यधिक विचलित हैं।

यह श्लोक यह बताता है कि अर्जुन अब पूरी तरह कर्म-क्षेत्र से हटने की कगार पर हैं। उनका युद्ध करने का संकल्प डगमगाने लगा है। यह केवल वीरता की कमी नहीं है, बल्कि एक संवेदनशील और धर्मसंकट में फंसे मनुष्य की आध्यात्मिक और भावनात्मक पीड़ा है।

मुख्य संदेश:

  • अर्जुन का शरीर और मन दोनों युद्ध के विचार से विद्रोह कर रहे हैं।
  • यह श्लोक अर्जुन के विषाद की चरम स्थिति को दर्शाता है।
  • यही वह मोड़ है जहाँ से श्रीकृष्ण उन्हें गीता का उपदेश देना शुरू करते हैं।
  • अर्जुन अब शिष्य के रूप में स्वयं को कृष्ण के शरण में समर्पित करने वाले हैं।

Stay Connected with Faith & Scriptures

"*" आवश्यक फ़ील्ड इंगित करता है

declaration*
यह फ़ील्ड सत्यापन उद्देश्यों के लिए है और इसे अपरिवर्तित छोड़ दिया जाना चाहिए।