
अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग
श्लोक 31
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥३२॥
(अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं:)
“हे कृष्ण! न तो मुझे विजय की इच्छा है, न राज्य की और न ही सुखों की।
हे गोविंद! हमारे लिए राज्य, भोग और जीवन का क्या लाभ है?”
गूढ़ व्याख्या / विस्तार से समझाइए:
इस श्लोक में अर्जुन का हृदय करुणा और मोह से भर गया है। वे अपने स्वजनों को युद्धभूमि में देखकर इस युद्ध के उद्देश्य पर ही प्रश्न उठाने लगते हैं।
वह कहते हैं कि यदि इस युद्ध में मुझे अपने ही बांधवों, गुरुओं, मित्रों, पितामहों और पुत्रों को मारना पड़े, तो ऐसी जीत, ऐसा राज्य और ऐसा सुख मुझे नहीं चाहिए।
यह श्लोक अर्जुन के मानसिक विषाद और नैतिक संकट की चरम अवस्था को दर्शाता है।
यह केवल व्यक्तिगत मोह नहीं, बल्कि एक गहरा धार्मिक और नैतिक द्वंद्व है — एक युद्ध, जिसमें धर्म के नाम पर अधर्म जैसा कृत्य करना पड़ रहा है।
अर्जुन पूछते हैं — यदि अपनों को खोकर राज्य मिलेगा तो ऐसा राज्य किस काम का? यदि सुख देने वाले ही नहीं रहे तो सुख का मूल्य ही क्या है?
मुख्य बिंदु:
- अर्जुन अपने प्रियजनों की हत्या की कल्पना से दुखी हैं।
- उन्हें जीवन, सुख और राज्य व्यर्थ लगने लगे हैं।
- यह श्लोक अर्जुन के भीतर उठ रहे आत्मिक संघर्ष का प्रतीक है।
- यह श्रीकृष्ण के उपदेश — कर्मयोग, आत्मज्ञान, और धर्म — की भूमिका बनाता है।






