
अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग
श्लोक 44
इत्येते कुलधर्मा नाश प्रशप्तदोहलोके ।
घ्नन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥४४॥
हिंदी भावार्थ:
अर्जुन कहते हैं –
इस प्रकार कुलधर्मों का नाश और कुल की स्त्रियों के भ्रष्ट होने से, निंदनीय कर्मों की परंपरा चल पड़ती है, और जब श्राद्ध व तर्पण जैसी क्रियाएं नष्ट हो जाती हैं, तो उनके पितर (पूर्वज) पिण्ड और जल से वंचित होकर पतित हो जाते हैं।
सरल व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण से कह रहे हैं:
“जब कुल का धर्म नष्ट हो जाता है, और स्त्रियों का पतन होता है, तब परिवारों में अधार्मिक और निंदनीय परंपराएं जन्म लेती हैं। ऐसे परिवारों में श्राद्ध, तर्पण जैसी पवित्र विधियाँ बंद हो जाती हैं, जिससे पूर्वजों को जो पिण्ड और जल (श्राद्ध आदि में दिया जाता है) मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाता। इसके कारण वे पूर्वज लोक में दुख भोगते हैं और उनका कल्याण नहीं हो पाता।”
गूढ़ भावार्थ:
हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि जीवित वंशज अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए श्राद्ध, पिण्डदान, और तर्पण आदि करते हैं। जब इन धार्मिक क्रियाओं का लोप हो जाता है—जैसे कि युद्ध के कारण पूरा कुल नष्ट हो जाए—तो उन पूर्वजों को जो आत्मिक शांति और संतोष मिलनी थी, वह बाधित हो जाती है।
इस श्लोक में अर्जुन युद्ध न करने के अपने निर्णय को एक धार्मिक और नैतिक तर्क देने का प्रयास कर रहे हैं। वे बताते हैं कि युद्ध सिर्फ वर्तमान लोगों को नहीं, बल्कि पूर्वजों और भावी पीढ़ियों को भी प्रभावित करेगा।






