
अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग
श्लोक 45
अहो बहुपापस्येति प्रोक्ता ममपि चेतसः ।
पितृभोग्यभिभूता लिंगे सुखरङ्गितैः किभिः ॥४५॥
हिंदी भावार्थ (सरल शब्दों में):
“हाय! यह बात तो बहुत पाप करने वाले व्यक्ति के लिए कही गई है — लेकिन यही भाव अब मेरे मन में भी आ रहा है। जब मेरे पितरों को उचित भोग (श्राद्ध आदि) नहीं मिल पाएँगे, तब सुखद प्रतीकों और रंगों से भरी हुई इस जीवन की बाहरी शोभा का कोई महत्व नहीं रह जाएगा।”
व्याख्या:
इस श्लोक में अर्जुन की मन:स्थिति और अधिक भावुक होती जा रही है। वह अपने निर्णय का समर्थन करने के लिए धार्मिक और भावनात्मक तर्क दे रहे हैं। अर्जुन कहते हैं कि यदि युद्ध हुआ और पूरा वंश नष्ट हो गया, तो पितरों के लिए जो धार्मिक कर्म किए जाते हैं (जैसे श्राद्ध, पिण्डदान, तर्पण) वे नहीं हो पाएँगे।
यदि हमारे पितर दुखी और अपूर्ण रहेंगे, तो फिर इस भौतिक जीवन के सुख, सज्जा, धन या रूप आदि का क्या अर्थ रह जाएगा?
यह एक गहरा आत्ममंथन है जहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि केवल अपनी भलाई नहीं देखनी चाहिए — हमें अपने पूर्वजों, परिवार की परंपराओं, और आत्मा की शांति की भी चिंता करनी चाहिए।






