
अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग
श्लोक 46
यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके |
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: || 46||
हिंदी भावार्थ (सरल शब्दों में):
“जैसे एक छोटे कुएँ का उतना ही उपयोग होता है, जितना कि तब जब चारों ओर जल से भरा हुआ क्षेत्र उपलब्ध हो — वैसे ही एक तत्वज्ञानी ब्राह्मण (ज्ञानी पुरुष) के लिए सभी वेदों का महत्व सीमित हो जाता है, क्योंकि वह उनके मूल तत्व को जान चुका होता है।”
व्याख्या:
यह श्लोक तत्वज्ञान (spiritual wisdom) और वेदों के बाह्य कर्मकांडों की तुलना करता है।
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को समझा रहे हैं कि एक सच्चा ज्ञानी, जो ब्रह्म (परम सत्य) को जान चुका है, उसके लिए वेदों के सारे कर्मकांड उतने ही सीमित हो जाते हैं जितना एक छोटे कुएँ का महत्व उस समय होता है जब हर दिशा में पानी भरा हो।
- जैसे अगर पूरा क्षेत्र जल से भर गया हो, तो उस समय छोटे कुएँ से पानी निकालने की जरूरत नहीं होती।
- वैसे ही जो व्यक्ति आत्मज्ञान को प्राप्त कर चुका है, वह वेदों के कर्मकांडों में नहीं उलझता क्योंकि उसने उन कर्मों के अंतिम उद्देश्य — मोक्ष या परम ज्ञान — को प्राप्त कर लिया है।
मुख्य बिंदु:
- यह श्लोक वेदों के कर्मकांड से ऊपर उठकर ज्ञान की श्रेष्ठता को बताता है।
- ज्ञानी पुरुष सभी धार्मिक क्रियाओं के पीछे के सार को जानता है, इसलिए वह बाह्य आडंबरों से मुक्त हो जाता है।
- यह श्लोक साधक को बताता है कि कर्मकांड का पालन तब तक आवश्यक है जब तक आत्मज्ञान न हो जाए, लेकिन आत्मज्ञानी के लिए उनका महत्व गौण हो जाता है।






