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Shrimad Bhagavad Gita Chapter -1 Shalok – 38 | श्रीमद् भगवदगीता अध्याय एक – श्लोक अड़तीस | PDF

  • जुलाई 23, 2025

अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग

श्लोक 38

न लोप्यन्ति हृदयोऽस्थेऽभिमानीनां चेतसा लोभीनाम्‌ ।
किमहमपि लोकत्रये राज्यलोलुपताम्‌ ॥३८॥

हिन्दी भावार्थ:

अहंकारी और लोभी लोगों के मन से राज्य और भोग की लालसा समाप्त नहीं होती।
तो क्या मैं भी तीनों लोकों में राज्य पाने की लालसा पालूं?

सरल व्याख्या / विस्तार:

इस श्लोक का वक्ता आत्ममंथन कर रहा है —
वह कहता है कि जो व्यक्ति अहंकारी (अभिमानी) और लोभी (लोभयुक्त) होते हैं, उनके मन से सत्ता, ऐश्वर्य और भोग-विलास की चाह कभी समाप्त नहीं होती।

फिर वह स्वयं से प्रश्न करता है:
“क्या मैं भी उन्हीं की तरह तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) में राज्य पाने की इच्छा पालूं?”
इसका निहित उत्तर है — नहीं, क्योंकि यह लालसा मोहमूलक है और आत्मिक शांति से दूर ले जाती है।

दार्शनिक संकेत:

  • यह श्लोक वैराग्य और स्वविवेक का संदेश देता है।
  • सत्ता और भोग की लालसा मनुष्य को लोभ और अभिमान में जकड़ देती है।
  • जो व्यक्ति विवेकशील है, वह आत्म-परीक्षण करता है और स्वयं को इन तुच्छ इच्छाओं से ऊपर उठाने का प्रयास करता है।

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