
अध्याय 1 – अर्जुनविषादयोग
श्लोक 38
न लोप्यन्ति हृदयोऽस्थेऽभिमानीनां चेतसा लोभीनाम् ।
किमहमपि लोकत्रये राज्यलोलुपताम् ॥३८॥
हिन्दी भावार्थ:
अहंकारी और लोभी लोगों के मन से राज्य और भोग की लालसा समाप्त नहीं होती।
तो क्या मैं भी तीनों लोकों में राज्य पाने की लालसा पालूं?
सरल व्याख्या / विस्तार:
इस श्लोक का वक्ता आत्ममंथन कर रहा है —
वह कहता है कि जो व्यक्ति अहंकारी (अभिमानी) और लोभी (लोभयुक्त) होते हैं, उनके मन से सत्ता, ऐश्वर्य और भोग-विलास की चाह कभी समाप्त नहीं होती।
फिर वह स्वयं से प्रश्न करता है:
“क्या मैं भी उन्हीं की तरह तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) में राज्य पाने की इच्छा पालूं?”
इसका निहित उत्तर है — नहीं, क्योंकि यह लालसा मोहमूलक है और आत्मिक शांति से दूर ले जाती है।
दार्शनिक संकेत:
- यह श्लोक वैराग्य और स्वविवेक का संदेश देता है।
- सत्ता और भोग की लालसा मनुष्य को लोभ और अभिमान में जकड़ देती है।
- जो व्यक्ति विवेकशील है, वह आत्म-परीक्षण करता है और स्वयं को इन तुच्छ इच्छाओं से ऊपर उठाने का प्रयास करता है।






